Saturday 4 February 2017

बोसॉन के जनक : सत्येन्द्र नाथ बोस

विज्ञान की नित नयी जानकारी इन्द्रजाल मे उपलब्ध कराने का एक प्रयास !
बोसॉन के जनक : सत्येन्द्र नाथ बोस
अंकित / फरवरी 4, 2016

सत्येंद्रनाथ बोस,Satyendra-Nath-Bose
सत्येंद्र नाथ बोस प्रसिद्ध गणितज्ञ और भौतिक शास्त्री थे। भौतिक शास्त्र में दो प्रकार के अणु माने जाते हैं- बोसॉन और फर्मियान। इनमें से बोसॉन सत्येन्द्र नाथ बोस के नाम पर ही है।

सत्येंद्र नाथ बोस का जन्म 1 जनवरी 1894 को कोलकाता में हुआ था। मृत्यु 4 फ़रवरी 1974 को हुयी थी।
उपलब्धियां
सत्येन्द्र नाथ बोस के सम्मान में जारी डाक टिकट
सत्येन्द्र नाथ बोस एक उत्कृष्ट भारतीय भौतिक वैज्ञानिक थे। उन्हें क्वांटम फिजिक्स में महत्वपूर्ण योगदान के लिए जाना जाता है। क्वांटम फिजिक्स में उनके अनुसन्धान ने “बोस-आइंस्टीन स्टेटिस्टिक्स” और “बोस-आइंस्टीन कंडनसेट’ सिद्धांत की आधारशिला रखी। भौतिक शास्त्र में दो प्रकार के अणु माने जाते हैं – बोसॉन और फर्मियान। ‘बोसॉन’ महान भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्रनाथ बोस के नाम को भौतिकी में अमिट रखने के लिया दिया गया है क्योंकि इस महान भारतीय वैज्ञानिक ने आधुनिक भौतिकी यानी क्वांटम भौतिकी को एक नई दिशा दी। उनके कार्यों की सराहना महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने की और उनके साथ मिलकर कई सिद्धांत प्रतिपादित किये। क्वांटम फिजिक्स में उनके अनुसन्धान ने इस विषय को एक नयी दिशा प्रदान की और उनके खोज पर आधारित नयी खोज करने वाले कई वैज्ञानिकों को आगे जाकर नोबेल पुरस्कार मिला।

जीवन घटना क्रम
1894: कोलकाता में जन्म हुआ
1915: गणित में एम.एस.सी. परीक्षा प्रथम श्रेणी में सर्वप्रथम आकर उत्तीर्ण की
1916: कोलकाता विश्वविद्यालय में फिजिक्स के प्राध्यापक के पद पर नियुक्त
1921: ढाका विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग में रीडर पद पर कार्य किया
1924: “प्लैंक’स लॉ एण्ड लाइट क्वांटम” शोधपत्र लिखा और आइंस्टीन को भेजा
1924-1926: यूरोप दौरे पर रहे जहाँ उन्होंने क्यूरी, पौली, हाइज़ेन्बर्ग और प्लैंक जैसे वैज्ञानिकों के साथ कार्य किया
1926-1945: ढाका विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर पद पर कार्यरत
1945-1956: विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर पद पर कार्यरत
1956-1958: शांतिनिकेतन में विश्व भारती विश्वविद्यालय के कुलपति रहे

1958: रॉयल सोसायटी का फैलो और राष्ट्रीय प्रोफेसर नियुक्त किया गया
1974: 4 फ़रवरी 1974 को कोलकाता में उनका निधन हो गया\
प्रारंभिक जीवन
सत्येन्द्र नाथ बोस का जन्म 1 जनवरी 1894 को कोलकाता में हुआ था। उनके पिता सुरेन्द्र नाथ बोस ईस्ट इंडिया रेलवे के इंजीनियरिंग विभाग में कार्यरत थे। सत्येन्द्र अपने सात भाइयों-बहनों में सबसे बड़े थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उनके घर के पास ही एक सामान्य स्कूल में हुई थी। उसके बाद उन्होंने न्यू इंडियन स्कूल और फिर हिंदू स्कूल में दाखिला लिया। अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनके बारे में एक दिलचस्प बात ये है की वो अपनी सभी परीक्षाओं में सर्वाधिक अंक पाते रहे और उन्हें प्रथम स्थान मिलता रहा। उनकी इस प्रतिभा को देख लोग अक्सर ये कहते थे की वो आगे जाकर बड़े गणितज्ञ या वैज्ञानिक बनेंगे।
शिक्षा

बोस ने अपनी स्कूली शिक्षा ‘हिन्दू हाईस्कूल’ कोलकाता से पूरी की उसके बाद ‘प्रेसिडेंसी कॉलेज’ में प्रवेश लिया जहाँ पर उस समय श्री ‘जगदीश चंद्र बोस’ और ‘आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय’ जैसे महान शिक्षक अध्यापन करते थे। सत्येंद्र नाथ बोस ने सन् 1913 में बी. एस. सी. और सन् 1915 में एम. एस. सी. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। मेघनाथ साहा और प्रशांत चंद्र महालनोविस बोस के सहपाठी थे। मेघनाथ साहा और सत्येंद्र नाथ बोस ने बी. एस. सी. तथा एम. एस. सी. की पढ़ाई साथ-साथ की। बोस सदैव कक्षा में प्रथम स्थान पर और साहा द्वितीय स्थान पर रहते थे। उस समय भारत में विश्वविद्यालय और कॉलेज बहुत कम होते थे। अतः विज्ञान शिक्षा प्राप्त छात्रों का भविष्य बहुत निश्चित नहीं होता था। इसलिए बहुत सारे छात्र विज्ञान की बजाय दूसरे विषय को चुनते थे। परंतु कुछ छात्रों ने ऐसा नहीं किया। और ये वही लोग हैंजिन्होंने भारतीय विज्ञान में नये अध्याय जोड़े। सी. वी. रामन का जीवन इसका बहुत अच्छा उदाहरण है जो विज्ञान शिक्षा प्राप्त करने के बाद सरकारी नौकरी करने लगे, किंतु विज्ञान के लगाव के कारण नौकरी के साथ-साथ दस वर्षों तक शोधकार्य में भी लगे रहे और अवसर मिलने पर जमी जमायी सरकारी नौकरी छोड़कर पूरी तरह से विज्ञान की साधना में लग गये। सर आशुतोष मुखर्जी ने रामन को यह अवसर प्रदान किया और बोस एवं साहा की सहायता की। आशुतोष मुखर्जी पेशे से वकील थे जो आगे चलकर कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने। उस समय बहुत कम भारतीय इतने ऊँचे पद पर पहुँच पाते थे। आशुतोष मुखर्जी अपने विषय में पारंगत थे और साथ ही वह विज्ञान में भी बहुत रुचि रखते थे तथा अपने अतिरिक्त समय में वे भौतिक-गणित पर व्याख्यान भी देते थे।
सत्येंद्रनाथ बोस ने अपना कार्य क्षेत्र विज्ञान को चुना। जब बोस और साहा कोलकाता विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे, उस समय बोस ने सोचा कि विज्ञान में कुछ नया करना चाहिए। बोस और साहा ने निश्चय किया कि पढ़ाने के साथ-साथ कुछ समय शोधकार्य में भी लगायेंगे। शोध के लिए नए-नए विचारों की आवश्यकता होती है इसलिए बोस ने गिब्बस और प्लांक की पुस्तकें पढ़ना शुरू किया। उस समय विज्ञान सामग्री अधिकांशत: फ़्रांसीसी या जर्मन भाषा में होती थी। अतः व्यक्ति को इन भाषाओं का ज्ञान होना आवश्यक था। बोस ने इन भाषाओं को न केवल बहुत जल्दी सीखा बल्कि उन्होंने इन भाषाओं में लिखी कविताओं का बांग्ला भाषा में अनुवाद भी करना प्रारंभ कर दिया था।
ढाका विश्वविद्यालय
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ सत्येंद्रनाथ बोस, शांतिनिकेतन, पश्चिम बंगाल
सन 1921 में ढाका विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। कुलपति डॉ. हारटॉग ढाका विश्वविद्यालय में अच्छे विभागों की स्थापना करना चाहते थे। उन्होंने भौतिकी विभाग में रीडर पद के लिए सत्येन्द्र नाथ बोस को चुना। सन् 1924 में साहा ढाका आए, जो कि उनका गृहनगर था और अपने मित्र बोस से भेंट की। बोस ने साहा को बताया कि वह कक्षा में प्लांक के विकिरण नियम को पढ़ा रहे हैं, परंतु इस नियम के लिए पुस्तकों में दी गई व्युत्पत्ति से वे सहमत नहीं हैं। इस पर साहा ने आइंस्टाइन और प्लांक के द्वारा हाल ही में किए गए कार्यो के प्रति बोस का ध्यान आकर्षित किया।
बोस ने वर्ष 1924 की शुरुआत में ढाका विश्वविद्यालय में 2 वर्ष के अवकाश के लिए आवेदन किया था ताकि वे यूरोप जाकर नवीनतम विकास कार्यों की जानकारी ले सकें परंतु महीनों तक ढाका विश्वविद्यालय से कोई उत्तर नहीं आया और इसी दौरान बोस ने अपना सबसे प्रसिद्ध शोधपत्र लिखा जो उन्होंने आइंस्टाइन को भेजा और उनसे प्रशंसा-पत्र भी प्राप्त किया था। आइंस्टाइन जैसे महान वैज्ञानिक से प्रशंसा-पत्र प्राप्त करना ही अपने आप में बड़ी बात थी। जब बोस ने यह प्रशंसा-पत्र विश्वविद्यालय के कुलपति को दिखाया तब कहीं बोस को 2 वर्ष के अवकाश की अनुमति मिली। यूरोप में लगभग दो वर्ष रहने के बाद सन् 1926 में बोस ढाका विश्विद्यालय वापस लौट आए। ढाका लौटने के पश्चात बोस से उनके कुछ साथियों ने ढाका विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद के लिए आवेदन करने हेतु प्रेरित किया। किंतु प्रोफेसर के लिए पी-एच. डी. होना आवश्यक थी और बोस केवल स्नातकोत्तर थे। उनके मित्रों ने कहा कि आपको चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि अब आप विख्यात हो गए हैं और आप आइंस्टाइन को भी जानते है आप आइंस्टाइन से एक प्रशंसा-पत्र ले लीजिए। आइंस्टाइन ने तुरंत प्रशंसा-पत्र दे दिया परंतु उन्हें इस बात पर बड़ा अश्चर्य हुआ कि भारत में व्यक्ति को उसके द्वारा किए गए काम के बजाय डिग्री के आधार पर नौकरी मिलती है।
आइंस्टाइन और बोस
अब बोस ने अपने तरीक़े से प्लांक के नियम की नयी व्युत्पत्ति दी। बोस के इस तरीक़े ने भौतिक विज्ञान को एक बिलकुल ही नयी अवधारणा से परिचित कराया। बोस ने इस शोधपत्र को ‘फिलासॉफिकल मैगजीन’ में प्रकाशन के लिए भेजा परंतु इस बार उनके शोधपत्र को अस्वीकार कर दिया गया, जिससे बोस हतोत्साहित हुए क्योंकि उनका मानना था कि यह व्युत्पत्ति उनके पहले के कार्यों से कहीं ज़्यादा तार्किक थी। फिर बोस ने साहसिक निर्णय लिया। उन्होंने इस शोधपत्र को आइंस्टाइन के पास बर्लिन भेजा, इस अनुरोध के साथ कि वे इस शोधपत्र को पढ़ें एवं अपनी टिप्पणी दें और यदि वे इसे प्रकाशन योग्य समझें तो जर्मन जर्नल ‘Zeitschrift fur Physik’ में प्रकाशन की व्यवस्था करें। इस शोधपत्र को आइंस्टाइन ने स्वयं जर्मन भाषा में अनुदित किया तथा अपनी टिप्पणी के साथ ‘Zeitschrift fur Physik’ में अगस्त 1924 में प्रकाशित करवाया। आइंस्टाइन ने इस शोधपत्र के सम्बंध में एक पोस्टकार्ड भी भेजा था जो बोस के लिए बहुत अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ।
बोस-आइंसटाइन साँख्यिकी सिद्धांत
ग्रहों और उनके सम्बंधों को समझने के लिए न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत की आवश्यकता होती है। उसके अनुसार संसार की हर वस्तु अपने आस-पास पाई जाने वाली दूसरी वस्तु को अपनी ओर आकर्षित करती है। जैसे सूर्य ग्रहों को, पृथ्वी चंद्रमा को। यह सिद्धांत ज्यादातर जगहों पर तो लागू होता है, लेकिन बहुत सी ऐसी जगहें हैं, जहाँ पर यह काम नहीं आता। यदि हम गैसों के अणुओं की गति की बात करें, तो वहाँ पर यह नियम असहाय हो जाता है। गैसों में असंख्य प्रकार के अणु पाए जाते हैं, जो सदैव गतिशील रहते हैं। इनकी गतिशीलता का गैस के दाब और ताप से एक ख़ास सम्बंध होता है। गैसों के इन अणुओं की गति को समझने के लिए गणित के औसत के नियम का सहारा लिया जाता है। इसे समझने के लिए मैक्सवेल और बोल्ट्जमैन ने जिस गणितीय सिद्धांत की व्युत्पत्ति की, उसे साँख्यिकी के नाम से जाना जाता है। साँख्यिकी औसत के गणित की बात करती है। आधुनिक भौतिक विज्ञान में इसकी आवश्यकता कदम-कदम पर पाई जाती है।
क्सवेल तथा वोल्ट्जमैन द्वारा आविष्कृत ये नियम तब तक सही से काम करते रहे, जब तक वैज्ञानिकों को सिर्फ परमाणुओं के बारे में जानकारी थी। लेकिन जैसे ही वैज्ञानिकों को यह पता चला कि परमाणु के भीतर भी अनेक प्रकार के परमाणु-कण पाए जाते हैं और उनकी गतियाँ बहुत अनोखी होती हैं, उनका यह नियम फेल हो गया। ऐसे में डॉ. सत्येंद्रनाथ बोस ने नये नियमों की खोज की, जो आगे चलकर ‘बोस-आइंसटाइन साँख्यिकी’ के नाम से जाने गये। इस नियम के सामने आने के बाद वैज्ञानिकों ने परमाणु-कणों का गहन अध्ययन किया और पाया कि ये मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं। इनमें से एक का नामकरण डॉ. बोस के नाम पर ‘बोसॉन’ रखा गया और दूसरे का नाम प्रसिद्ध वैज्ञानिक एनरिको फर्मी के नाम पर ‘फर्मिऑन’।
जिस व्यक्ति की मेधा को आइंसटाइन जैसे वैज्ञानिक ने न सिर्फ स्वीकारा बल्कि उसके साथ अपना नाम भी जोड़ा, उस व्यक्ति को नोबेल पुरस्कार न मिलना काफ़ी सवाल खड़े करता है। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ज्यादातर वैज्ञानिकों का मानना है कि भौतिक विज्ञान पर जितना असर ‘बोस-आइंस्टाइन साँख्यिकी’ का पड़ा है, उतना असर तो शायद आने वाले समय में हिग्स बोसॉन का भी न हो।
अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों से संबंध
(बाएं से दाएं बैठे हुए) एस एस राव, अभिजीत डे, देवेंद्र मोहन बोस, वर्नर हाइजेनबर्ग, कृष्णन करिआमानिक्कम और सत्येन्द्र नाथ बोस कलकत्ता, 8 अक्टूबर 1929 इंडियन एसोसिएशन फॉर दि कल्टिवेशन आफ साइंस
अक्टूबर, 1924 में सत्येन्द्रनाथ यूरोप पहुँचे। बोस पहले एक वर्ष पेरिस में रहे। फ्रांस में रहते हुए बोस ने सोचा कि क्यों न ‘रेडियोधर्मिता’ के बारे में ‘मैडम क्यूरी’ से तथा ‘मॉरिस डी ब्रोग्ली’ (लुई डी ब्रोग्ली के भाई) से ‘एक्स-रे’ के बारे में कुछ सीखा जाए। मैडम क्यूरी की प्रयोगशाला में बोस ने कुछ जटिल गणितीय गणनाएँ तो कीं परंतु रेडियोधर्मिता के अध्ययन का सपना अधूरा रह गया। मॉरिस डी ब्रोग्ली के साथ बोस का अनुभव अच्छा रहा। ब्रोग्ली से इन्होंने एक्स-रे की नई तकनीकों के बारे में सीखा।
अक्टूबर, 1925 में बोस ने बर्लिन जाने का विचार बनाया जिससे वे अपने ‘मास्टर’ से मिल सकें। बोस आइंस्टाइन को ‘मास्टर’ कह कर सम्बोधित करते थे। वास्तव में बोस आइंस्टाइन के साथ काम करना चाहते थे। जब बोस बर्लिन पहुँचे तो उन्हें निराशा हुई क्योंकि आइंस्टाइन शहर से बाहर गए हुए थे। कुछ समय के बाद आइंस्टाइन वापस आए और बोस से मुलाकात की। बोस के शब्दों में ‘यह एक दिलचस्प मुलाकात थी। उन्होंने सभी तरह के प्रश्न पूछे जैसे आपको (बोस) एक नई सांख्यिकी का विचार कैसे आया और इसका क्या महत्त्व है आदि।’ बोस को आइंस्टाइन के साथ काम करने का अवसर तो नहीं मिला पर उनसे हुई कई मुलाकातों से बोस को बहुत लाभ हुआ। आइंस्टाइन ने उन्हें एक परिचय पत्र भी दिया जिसने बोस के लिए बहुत सारे दरवाज़े खोल दिए।
प्लांक के नियम से प्रतिवाद
सत्येंद्र नाथ बोस ने Planck’s black body radiation law का गहन अध्यन्न किया और ब्लैक बॉडी रेडिएशन की फोटोन गैस के रूप में पहचान की। उन्होंने मेक्स प्लांक जिन्होंने क्वान्टम मेकेनिक्स की रचना की, के ब्लैक बॉडी रेडीयेशन नियम में लाइट क्वांटा या फोटोन गैस को लेकर प्रतिवाद था जिसको लेकर आइन्सटाइन भी असहमत थे। यह समय था 1920 का जब क्वान्टम मेकेनिक्स में यह गुत्थी की तरह थी, क्वान्टम मेकेनिक्स के विकास हो तो रहा था लेकिन गति बेहद धीमी थी क्योंकि कहीं न कहीं प्लांक्स के नियम को अगले चरण तक ले जाना था। उसी समय भारत में ढाका विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर सत्येद्र नाथ बोस, क्वान्टम मेकेनिक्स के अध्यन्न में आए और उन्होंने 1924 को एक चार पृष्ठ के रिसेर्च पेपर लिखा जिसका शीर्षक था ‘Planck’s Law and the Hypothesis of Light Quanta (1924)’ जो आज मॉडर्न क्वान्टम मेकेनिक्स और कणों से जुड़ी किसी भी खोज, अध्ययन का आधार है। सत्येंद्र नाथ का यह रिसेर्च पेपर आगे चलकर बोस–आइंस्टीन स्टेटिक्स और बोस–आइंस्टीन कनडेनसेट (एक तरह की स्टेट ऑफ मैटर) के रूप में बदला जिसकी खोज सत्येंद्र नाथ बोस और आइंस्टीन ने खुद मिलकर की। उनके बारे में लिखा गया कि

Bose entered the quantum arena and set out to derive Plancks law treating radiation as a gas consisting of photons. What Bose had essentially introduced was a new counting rule for the states of a gas of photons – or the quanta of light – that explained Plancks law of thermal radiation at one stroke.

बोस का शोधपत्
1924 में सत्येंद्र नाथ बोस ने एक शोध पत्र तैयार किया जिसका नाम उन्होने ‘Planck’s Law and the Hypothesis of Light Quanta’ दिया। वैज्ञानिक परिभाषा में कहे तो

Bose derived Planck’s quantum radiation law without any reference to classical physics by using a novel way of counting states with identical particles.”
साधारण तौर पर कहे तो बोस ने अपने तरीक़े से प्लांक के नियम की नयी व्युत्पत्ति दी। बोस के इस तरीक़े ने भौतिक विज्ञान को एक बिलकुल ही नयी अवधारणा से परिचित कराया। बोस ने क्वान्टम फ़िज़िक्स स्टडि ने एक नई नीव रख थी जो उस समय से लेकर आज तक सभी कणों के खोजों का आधार रही हैं जिसका ताज़ा उदाहरण हिंग्स बोसॉन कण की खोज है। 1924 में जब बोस ने ‘Planck’s Law and the Hypothesis of Light Quanta’ को तैयार कर लिया तो इसे उन्होने दुनिया की जानी मानी विज्ञान शोध पत्रिका ‘फिलासॉफिकल मैगजीन’ में प्रकाशित होने के लिए भेजा। लेकिन उनका शोधपत्र प्रकाशित नहीं हुआ। कुछ समय बीत जानते के बाद बोस ने फिर आइंस्टीन को सीधे यह शोधपत्र भेजने का एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया और बर्लिन में सीधे ‘Planck’s Law and the Hypothesis of Light Quanta’ को भेजा और आइंस्टीन को इस पर विचार प्रकट करने और इसे जर्मन में अनुवाद कर ‘Zeitschrift fur Physik’ विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित करने का निवेदन किया। उनका पत्र इस प्रकार था

I have ventured to send you the accompanying article for your perusal and opinion. I am anxious to know what you think of it. You will see that I have tried to deduce the coefficient 8pv2/c3 in Plancks Law Independent of classical electrodynamics, only assuming that the elementary regions in the phase-space has the content h3. I do not know sufficient German to translate the paper. If you think the paper worth publication I shall be grateful if you arrange for its publication in Zeitschrift fur Physik. Though a complete stranger to you, I do not feel any hesitation in making such a request. Because we are all your pupils though profiting only by your teachings through your writings. I do not know whether you still remember that somebody from Calcutta asked your permission to translate your papers on Relativity in English. You acceded to the request. The book has since been published. I was the one who translated your paper on Generalised Relativity.
बोस का शोध बेहद महत्वपूर्ण था और आइंस्टीन ने इस बात को समझा। इस शोधपत्र को आइंस्टीन ने स्वयं जर्मन भाषा में अनुदित किया तथा अपनी टिप्पणी के साथ ‘Zeitschrift fur Physik’ में अगस्त 1924 में प्रकाशित करवाया। आइंस्टीन ने इस शोधपत्र के सम्बंध में बोस को एक पोस्टकार्ड भी भेजा था जो बोस के लिए उस समय एक ख़ास चीज़ थी।
आइंस्टीन से मुलाक़ात
1924 के बाद बोस आइंस्टीन के सीधे संपर्क में आए और आइंस्टीन ने भी बोस के साथ कार्य करने की इक्छा इच्छा जताई। 1924 के बाद बोस भारत के बाहर जाकर शोध कार्य करना चाहते थे, बोस ने विशेष आग्रह कर आइंस्टीन से प्रशंसा पत्र को ढाका विश्वविद्यालय में सम्मलित कर दो वर्ष के लिए अवकाश प्राप्त किया और यूरोप के लिए रवाना हुये। अक्टूबर, 1924 में सत्येन्द्रनाथ यूरोप पहुँचे। बोस पहले एक वर्ष पेरिस में रहे। फ्रांस में रहते हुए बोस ने ‘रेडियोधर्मिता’ में ‘मैडम क्यूरी’ के साथ तथा ‘मॉरिस डी ब्रोग्ली’ (लुई डी ब्रोग्ली के भाई) में ’एक्स-रे’ शोध में साथ में काम किया। मैडम क्यूरी की प्रयोगशाला में बोस ने कुछ जटिल गणितीय गणनाएँ तो कीं परंतु रेडियोधर्मिता के शोध पर अधिक कार्य नहीं कर पाये। मॉरिस डी ब्रोग्ली के साथ बोस का अनुभव बेहद अच्छा रहा। ब्रोग्ली से इन्होंने एक्स-रे की नई तकनीकों के बारे में सीखा। अक्तूबर 1925 में वे बर्लिन गए और आखिर में आइंस्टीन से पहली बार व्यक्तिगत तौर पर मिले। यह मुलाक़ात बोस और आइंस्टीन दोनों के लिए ख़ास थी। इसी समय बोस – आइंस्टीन स्टेटिक्स और बोस – आइंस्टीन कनडेनसेट ( एक तरह की स्टेट ऑफ मैटर ) संकल्पना हुयी। बोस – आइंस्टीन स्टेटिक्स अध्यन्न के दौरान पॉल दीयरिक, आइंस्टीन और सत्येंद्र नाथ बोस ने साथ में कार्य किया। इसी समय एक विशेष तरह की कणों की खोज हुयी। इस कण का नाम सत्येंद्र नाथ बोस के नाम पर रखने का फैसला लिया और कण का नाम बोसॉन रखा गया।
बोसॉन और फर्मियान
आज भौतिकी में कण दो प्रकार के होते हैं एक बोसॉन और दूसरे फर्मियान। बोसॉन यानि फोटॉन, ग्लुऑन, गेज बोसॉन (फोटोन, प्रकाश की मूल इकाई) और फर्मियान यानि क्वार्क और लेप्टॉन एवं संयोजित कण प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, इलेक्ट्रॉन ( चार्ज की मूल इकाई) । यह वर्तमान भौतिकी का आधार हैं। वर्तमान में बोस – आइंस्टीन स्टेटिक्स आधार हैं स्टैंडर्ड मॉडल ऑफ पार्टिकल फ़िज़िक्स। वर्तमान में जो भी अणु भौतिकी से जुड़े हैं सभी की सभी शोधों का आधार कहीं न कहीं बोस – आइंस्टीन साँख्यिकी हैं। एक वैज्ञानिक ने बोस के भौतिकी में स्थान के बारे में कहा हैं

“You Don’t Know Who He Was? Half the Particles in the Universe Obey Him! ”
कोलकाता विश्वविद्यालय
बोस सन् 1926 से 1945 तक ढाका में रहे परंतु शोधपत्रों का प्रकाशन क्रम पहले की भाँति नहीं रहा। ऐसा शायद इसलिए रहा क्योंकि बोस की दिलचस्पी एक समस्या से दूसरी समस्या में परिवर्तित होती रही। सन् 1945 में बोस कोलकाता वापस आ गए और कोलकाता विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर पद पर नियुक्त हो गए।
शांतिनिकेतन में
बोस 1956 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त होकर शांति निकेतन चले गए। शांति निकेतन कवि रविन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित किया गया था। टैगोर सत्येन्द्र नाथ बोस से अच्छी तरह परिचित थे तथा उन्होंने अपनी पुस्तक ‘विश्व परिचय’ भी बोस को समर्पित की थी। परंतु पुराने लोगों ने बोस को पसंद नहीं किया जिससे बोस को बहुत निराशा हुई और 1958 में उन्हें कलकत्ता वापस लौटना पड़ा। इसी वर्ष बोस को रॉयल सोसायटी का फैलो चुना गया और इसी वर्ष उन्हें राष्ट्रीय प्रोफेसर नियुक्त किया गया। बोस अगले 16 बरसों तक (मृत्युपर्यंत) इस पद पर बने रहे।
कला और संगीत प्रेमी
सत्येन्द्र नाथ बोस ललित कला और संगीत प्रेमी थे। बोस के मित्र बताते थे कि उनके कमरे में किताबों, आइंस्टीन, रमन आदि वैज्ञानिकों के चित्र के अलावा एक वाद्य यंत्र यसराज हमेशा रहता था। बोस इसराज और बांसुरी बजाया करते थे। परंतु इसराज तो किसी विशेषज्ञ की तरह बजाते थे। बोस के संगीत प्रेम का दायरा लोक संगीत, भारतीय संगीत से लेकर पाश्चात् संगीत तक फैला हुआ था। प्रो. धुरजटी दास बोस के मित्र थे। जब प्रो. दास भारतीय संगीत पर पुस्तक लिख रहे थे तब बोस ने उन्हें काफ़ी सुझाव दिए थे। प्रो. दास के अनुसार बोस यदि वैज्ञानिक नहीं होते तो वह एक संगीत गुरु होते।
बोस की प्रेरणा
नि:संदेह आइंस्टाइन ही बोस के जीवन की प्रेरणा थे। कहते हैं जब बोस को आइंस्टाइन की मृत्यु का समाचार मिला था तो वह भावुक होकर रो पड़े थे। आइंस्टाइन विज्ञान के क्षेत्र के महानायक थे और बोस उनमें ईश्वर की तरह श्रद्धा रखते थे।
निधन
सन 1974 में बोस के सम्मान में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया। जिसमें देश-विदेश के कई वैज्ञानिक सम्मिलित हुए। इस अवसर उन्होंने कहा “यदि एक व्यक्ति अपने जीवन के अनेक वर्ष संघर्ष में व्यतीत कर देता है और अंत में उसे लगता है कि उसके कार्य को सराहा जा रहा है तो फिर वह व्यक्ति सोचता है कि अब उसे और अधिक जीने की आवश्यकता नहीं है।” और कुछ ही दिनों के बाद 4 फ़रवरी 1974 को सत्येन्द्र नाथ बोस सचमुच हमारे बीच से हमेशा के लिए चले गए।